1947 के भारत-विभाजन पर अनेक पुस्तकें लिखी गई हैं, कुछ अपने देशवासियों द्वारा और कुछ विदेशियों द्वारा। अधिकतर लेखकों ने इधर-उधर से सुनकर अथवा सरकारी रिपोर्टें पढ़ कर अपने-अपने दृष्टिकोण से कुछ भी लिख दिया हुआ है। विभाजन के लिए कोई जिन्नाह को, तो कोई जवाहर लाल नेहरू को, तो कोई माउण्ट बैटन व अंग्रेज सरकार को जिम्मेदार बताता है।
ए.एन. बाली द्वारा लिखित ‘Now It Can Be Told’, राम मनोहर लोहिया द्वारा लिखित ‘Guilty Men oF India’s Partition’, दुर्गादास द्वारा लिखित ‘India : From Curzon to Nehru and After’ आदि ऐसी बहुत सी पुस्तकें हैं जिनसे हमें कुछ तथ्य मिलते हैं। साथ ही उन लेखकों की भावनाएँ—कहीं गुस्सा, कहीं विनम्रता—भी नजर आती हैं।
यह बात तो सच है कि यह एक दुखदायी घटना-चक्र था, जिसने मनुष्यता को शर्मसार किया। इसको व्यावहारिक रूप देने वालों ने लूट, अत्याचार, खून, अपहरण, बलात्कार व अग्निकाण्डों का ऐसा जबरदस्त ताण्डव किया कि जिसमें बूढ़ों, बच्चों व स्त्रियों का भेद भी नहीं रखा गया।
यह सब याद कर के मन विचलित होता है और क्षोभ से भर उठता है। कभी-कभी तो मन में यह विचार भी आता है कि क्या आज उस सब को स्मरण करके उन घावों को फिर से कुरेदना उचित है ?
किन्तु यह विचार पराभूत मनोवृत्ति को प्रदर्शित करता है। क्योंकि विभाजन-काल में जो भी हुआ, अच्छा या बुरा, वह हमारे देश के इतिहास का एक पृष्ठ बन चुका है। और इतिहास न तो मिटाया जा सकता है, तथा ना ही भुलाया जा सकता है। किसी भी जीवित राष्ट्र के लिए उसे जानना और समझना अत्यन्त आवश्यक होता है। यह आवश्यकता दो दृष्टि से होती है—
1. इतिहास को जानने से प्रेरणा, उत्साह और गौरव का भाव जाग्रत होता है कि हमारे पूर्वज ऐसे भी थे।
2. इससे चेतावनी मिलती है कि जो भूलें अतीत में हमारे पूर्वजों द्वारा की गईं, वे वर्तमान में और भविष्य में न दोहरायी जाएँ।
लेकिन यह भी तभी समभव है, जब इतिहास अपने वास्तविक रूप में और प्रामाणिक ढंग से लिखा गया हो।
मै स्वयं विभाजन काल का साक्षी हूँ। मैं तथा मेरे जैसे अनेक उस काल के भुक्त-भोगी लोग वर्षों से यह महसूस कर रहे थे कि विभाजन-काल का इतिहास अपने वास्तविक स्वरूप में नहीं लिखा गया है। उस काल के बहुत सारे तथ्यों को छिपाया गया है और बहुत से तथ्य तोड़-मरोड़ कर पेश किए गए हैं। तत्कालीन राजनेताओं और उनके अनुयायी इतिहास-लेखकों की इसमें क्या मजबूरी थी, यह तो वे ही जानें। किन्तु यह है दुर्भाग्यपूर्ण।
विभाजनकाल के हम सब साक्षियों के दर्द को लेखक श्री कृष्णानन्द सागर जी ने महसूस किया और उस काल के सत्य इतिहास को सामने लाने का निश्चय किया। इस दृष्टि से उन्होंने अनेक उपलब्ध व्यक्तियों के पास जाकर उनसे वार्तालाप किया और उनसे सम्बन्धित तथ्यों को लिखा।
इन सब वार्तालापों/साक्षात्कारों का ही संकलन है यह ग्रन्थ—‘विभाजनकालीन भारत के साक्षी’। यह एकमात्र ऐसा ग्रन्थ है जिसमें उस कालखण्ड की जगह-जगह की जमीनी स्तर की जानकारियाँ आ पायी हैं।
विभाजन तो 1947 में हुआ, लेकिन उसकी भूमिका बहुत वर्ष पूर्व से बनने लगी थी। उस भूमिका का जमीनी स्तर पर क्या प्रभाव था, उस प्रभाव में उतरोत्तर कैसे वृद्धि होती गई कि जिसके परिणाम स्वरूप अन्तत: बीस लाख लोगों का नरमेध तथा एक करोड़ से अधिक लोगों का विस्थापन हुआ, यह इस ग्रन्थ में हमें बहुत अच्छी तरह से देखने को मिलता है।
लेखक का यह कथन बिल्कुल सही है कि यह सीधा-सीधा मुस्लिम समाज और हिन्दू समाज के बीच लड़ा गया युद्ध था। जिसमें मुस्लिम समाज आक्रान्ता था और हिन्दू समाज अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा था। यह युद्ध आज भी चल रहा है। आज जहाँ हमें प्रतिदिन पाकिस्तान से जूझना पड़ रहा है, वहीं इसके साथ ही देश के अन्दर भी देश को तोड़ने वाली अनेक शक्तियाँ सक्रिय हैं।
ऐसी अवस्था में यह इतिहासमय ग्रन्थ वर्तमान पीढ़ी को तो झकझोर कर जगाने में समर्थ होगा। ही, भावी पीढ़ियों के लिए भी पर्याप्त मार्गदर्शक सिद्ध होगा।
मैं लेखक के साहस. लगन व परिश्रम को नमन करता हूँ।
सिविल लाइन्स, ब्रिज भूषण सिंह बेदी
पंजाब प्रान्त संघचालक
कादियाँ (पंजाब)
22-01-2021